आस्था थोपी नहीं जाती ---
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विश्व सभ्यता की एक अद्भुत सी उपज ,
जो दिखाई नहीं देती ,मगर हर कोई दिल से महसूस करता है .
सभ्यताए बहुत सी आई ,आकर चली गयी ,अभी आगे और भी आएँगी .
हर किसी ने इसे अपने ढ़ंग से परिभाषित करना चाहा ,
लेकिन लोग अगर कुछ समझ पाए तो बस आस्था .
आस्था को किसी ने प्रेरित नहीं किया ,
लोगो के अन्दर खुद अपनी मर्जी से आई .और आई तो ऐसी ,
मानव मस्तिष्क से कभी गई ही नहीं .
आदिमानव नंगे रहते थे ,कोई भाषा नहीं थी ,कोई नियम नहीं था .
किसी एक ने खुद को ढाला देखकर सब लोग ढल गए .
उसने ये नहीं कहा मेरी तरह तुम भी करो ,और एक सभ्यता बन गयी .
क्योकि उसमे कुछ बात थी लोगो ने कुछ बेहतर महसूस किया .
धर्म भी कुछ ऐसा ही है ,हमें जो पसंद हो हम खुद पर लागू कर सकते है ,
लेकिन हम ये दबाव नही बना सकते की तुम भी यही करो .
अगर धर्म बेहतर है तो अपने आप फिजाओं में बिखर जाएगा .
उसे बिखेरने की जरुरत नहीं पड़ेगी . इतिहास गवाह है ,
जो धर्म खुद फैला उसकी हस्ती कभी मिटी ही नहीं ,
जिसे फैलाया गया उसमे कोई न कोई कशिश रह गयी .
मेरा मानना है धर्म का प्रचार न करे बल्कि खुद को उसमे ढाले ,
धर्म अपने आप फ़ैल जाएगा बिना किसी विरोध के ,
क्योकि हर धर्म का मूल एक ही है इंसानियत और एहसास .
किसी के भावनाओं को बिन कहे महसूस कर पाना ही धर्म है।
यही आस्था है इसे थोपा\नहीं जा सकता .