अक्सर हम ज़िन्दगी में करना कुछ और चाहते है , लेकिन होता कुछ और ही है
ज़िन्दगी की सारी उम्मीदें टूटकर बिखर जाती है , मन के अन्दर एक विक्षोभ
सा आ जाता है। अगर प्रकृति मेरी गुलाम होती तो मैं सारी दुनिया तबाह कर देता है ,।
लेकिन कुछ समय के पश्चात ज़िन्दगी में ऐसे बदलाव आ जाते है, जो ये सोचने को मजबूर कर देते है की जो कुछ भी हुआ अच्छा ही हुआ ।
तो इससे हमने एक ही निष्कर्ष पाया ------
प्रकृति हर कदम पर इन्सान का भरपूर साथ देती है ,
वह हमें कुछ सीख देना चाहती है ,
लेकिन हम प्रकृति के उन संकेतों को समझ नहीं पाते ,
और अनायास उस पर क्रोध कर बैठते हैं,
अगले ही pal ये महसूस होता है ,
प्रकृति तो मेरे साथ ही थी ,
उसने मेरे साथ जो कुछ भी किया अच्छा किया,
औए मैं नादान उसे समझ नहीं पाया ।
अतः जहाँ तक मैं मानता हूँ -----------------
ज़िन्दगी के हर उस मोड़ पे ,
जब घटनाएं अपने सोच के विपरीत होने लगें ,
तो हमें बजाय क्रोध के ये सोचना चाहिए ,
आख़िर प्रकृति हमें क्या सीख देना चाहती है ,
ज़िन्दगी के किस गलियारे में ले जाना चाहती है ।
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