जब किसी की पहचान किसी एक व्यक्ति तक सिमित रहती है ,
तब तक उसे भक्ति कहते हैं ।
जो एक अद्भुत आनंद को जन्म देता है ।
और जब उसकी पहचान समाज में बनने लगती है ,
तब वह भक्ति न रहकर शक्ति बन जाती है ।
भक्ति तो सदैव एक ही दायरे में रह जाती है ।
लेकिन शक्ति दो दायरों में बाँट जाती है ।
एक स्थिर शक्ति जो ज़िन्दगी खुशहाल बनाती है ।
एक चलायमान शक्ति जो केवल विनाश लाती है ।
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